नहाय खाय के साथ सूर्य उपासना का पर्व आरंभ, जानें महापर्व छठ की धार्मिक और अधात्मिक पक्ष
सूर्य उपासना का 4 दिवसीय महापर्व की शुरुआत हो चुकी है. छठ वर्ती आज नहाय खाय के दिन कद्दु,चना दाल और चावल का प्रसाद खाकर व्रत रख रही हैं. छठ महापर्व की धार्मिक और आध्यात्मिक पक्ष जानें

NAXATRA NEWS
CHHATH PUJA 2025: सूर्य उपासना का 4 दिवसीय महापर्व की शुरुआत हो चुकी है. छठ वर्ती आज नहाय खाय के दिन कद्दु,चना दाल और चावल का प्रसाद खाकर व्रत रख रही हैं. छठ महापर्व की धार्मिक और आध्यात्मिक पक्ष की बात करें तो ये मुख्य रूप से सूर्य की आराधना का पर्व है. तो आइए जानते हैं महापर्व की धार्मिक और अधात्मिक पक्ष.
महापर्व की धार्मिक और अधात्मिक पक्ष
सनातन संस्कृति में प्रकट देव सूर्य का महत्वपूर्ण स्थान है, भारत में सूर्योपासना ऋगवेद काल से होती आ रही है. सूर्य और इसकी उपासना की चर्चा ऋग्वेद और उपनिषदों से लेकर विष्णु पुराण, भगवत पुराण, और ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि में विस्तार से की गयी है. सृष्टि के पालक और प्रकट देव होने के कारण अलग-अलग रूपों में सूर्य की पूजा प्रारम्भ हो गयी थी , लेकिन देवता के रूप में सूर्य की वन्दना का उल्लेख पहली बार ऋगवेद में मिलती है.
मार्कण्डेय पुराण के अनुसार सृष्टि रचना के बाद ब्रह्मा के पुत्र मरीचि ने अपने पुत्र कश्यप की शादी अदिति से की और इन्हीं के पुत्र हुए सूर्य. अदिति के पुत्र होने के कारण सूर्य को आदित्य कहा जाता है. सूर्योपनिषद में सूर्य को ही दुनिया यानी पृथ्वी की उत्पत्ति का कारक माना गया है. वैज्ञानिक भी मानते हैं कि सूर्य के बिना जीवन सम्भव नहीं है. आयुर्वेद, ज्योतिष और हस्तरेखा विज्ञान में भी सूर्य का महत्व है. बाद में सूर्यदेव की मूर्ति पूजा का रूप सामने आया और अनेक स्थानों पर सूर्यमंदिर भी बनाये गये. आदिवासी संस्कृति में भी सूर्य को सिंगबोंगा के रूप में पूजा जाता है.
भारत के बाद सूर्य-पूजा को सर्वाधिक महत्व यूनान में दिया जाता है. यूनान के दार्शनिक प्लेटो ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘रिपब्लिक’ में सूर्य यानी ‘हेलियोस’ की पूजा की महिमा का गुणगान किया है. यूनानी मान्यतानुसार हेलियोस घोड़े पर विराजमान रहते हैं और उनके घोड़े से आग के समान ज्वालाएं निकलती रहती हैं. यूनानी गाथाओं के अनुसार भगवान ‘सोल’ भी सूर्य के ही सूचक हैं और हेलियोस के समतुल्य हैं.
वहीं जापानी गाथाओं के अनुसार जापान में भगवान सूर्य माता के रूप में पूजे जाते हैं. सूर्य यानी ‘अमतेरासू’ संपूर्ण ब्रह्माण्ड की देवी ‘ओमिकानी’ हैं. जापान के होनशू द्वीप पर अमतेरासू-ओमिकानी के मंदिर भी पाए जाते हैं, जहां पर हमारे देश में लगने वाले कुंभ मेले की भांति प्रत्येक 20 वर्ष के बाद एक मेला लगता है, जिसे ‘सिखिन सेंगू’ कहते हैं.
अमेरिकी गाथाओं के अनुसार विश्वभर में कई युगों तक अंधकार छाया रहा था, जिसके कारण पृथ्वी पर जीवन असंभव था. उस काल में सूर्यदेव स्वर्ग में निवास करते थे. मध्य अमेरिकी देशों के मूल निवासियों (आजटेक) लोगों ने विश्व के कल्याणार्थ अपने प्राणों की बलि देकर सूर्यदेव को प्रसन्न किया. अमेरिका में ‘तोनतिहू’ यानी सूर्य अपनी काया से प्रकाश की किरणें निकालते हैं और आजटेक लोगों की रक्षा करते हैं. वे फसलों को खुशहाली और मनुष्यों को जीवन प्रदान करते हैं.
मिस्र में उदीयमान सूर्य को ‘होरूस’, दोपहर के सूर्य को ‘रा’ और अस्त होते सूर्य को ‘ओसिरिस’ कहते हैं. मिस्र की लोक मान्यताओं के अनुसार विश्व भर में ‘रा’ का राज है। ये ‘रा’ बाज का सिर लिए पूरी दुनिया की रखवाली और असुरों से मानव जाति की रक्षा करते हैं.
ईरान में सूर्य को ‘मित्र’ कहा जाता है. यह एक अनूठा उदाहरण है कि ईरानी ‘मित्र’ को ग्रीक और रोमन लोग भी सूर्य का ही प्रतीक मानते हैं. वहीं, वैदिक साहित्य में ‘मित्र’ सूर्य को कहा जाता है. आज सूर्य की उर्जा को सोलर पावर के रूप में परिवर्तित कर प्रयोग किया जा रहा है.
छठ पूजा कब से हो रही है इस को लेकर कई कथाएं प्रचलित
एक पौराणिक कथा के अनुसार मनु के पुत्र राजा प्रियंवद को कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनायी गयी खीर दी. इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ परन्तु वह मृत पैदा हुआ. प्रियंवद पुत्र को लेकर श्मशान गये और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे. उसी वक्त ब्रह्माजी की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं. हे! राजन् आप मेरी पूजा करें और लोगों को भी पूजा के प्रति प्रेरित करें. राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी.
एक कथा के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गये थे, तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए प्रकृति के छठे अंश और ब्रह्मा की मानसपुत्री देव सेना षष्ठी माता की पूजा की थी और प्रसन्न होकर षष्ठी माता ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था. इसके बाद अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान, जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलायी. षष्ठी देवी के नाम पर इस पूजा का नाम छठ हो गया.
रामायण काल में भी छठ पूजा का उल्लेख
रामायण काल में भी छठ पूजा का उल्लेख मिलता है, जब वनवास से अयोध्या लौटने के बाद ऋषि मुनियों के आदेश से भगवान राम ने राजसूय यज्ञ करने का फैसला लिया. इस यज्ञ में उन्होंने मुग्दल ऋषि को आमंत्रित किया. मुग्दल ऋषि ने माता सीता को कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने का आदेश दिया और माता सीता ने मुग्दल ऋषि के आश्रम में रहकर छह दिनों तक सूर्यदेव भगवान की आराधा की थी.
वहीं महाभारत से जुड़ी एक मान्यता के मुताबिक जब पांडव सारा राजपाट जुए में हार गए, तब द्रौपदी ने सूर्य की उपासना की और व्रत रखा था. इस व्रत से उनकी मनोकामना पूरी हुई थी और पांडवों को सब कुछ वापस मिल गया.
वहीं महाभारत में ही सूर्यपुत्र कर्ण की पूजा भी काफी प्रसिद्ध है ,कर्ण भगवान सूर्य के अंश से जन्मे थे और उनके परम भक्त थे और वो रोज सूर्योदय और सूर्यास्त के समय जल में खड़े होकर उन्हें अर्घ्य देते थे. सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने. वे सूर्य को अर्घ्य देने के बाद दान भी करते थे और याचकों की इच्छा पूरी करते थे महाभारत की वो कथा आपको याद ही होगी जब इंद्र ने अर्जुन को बचाने के लिए कर्ण से उनके कवच और कुंडल मांगे थे और कर्ण ने खुशी खुशी उनको दान दिया था.
महाभारत काल में ही एक कथा और मिलती है जब भगवान कृष्ण के बेटे साम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था. इसका इलाज शाकद्वीप के ब्राह्मणों को ही आता था. ये ब्राह्मण सूर्य के उपासक थे और सूर्य के प्रकाश से कुष्ठ का इलाज करते थे दरअसल इस शाकद्वीप में शाक वृक्षो और झाड़ियों की भरमार थी. शाक पौधा बेहद गुणकारी होता है. कहते हैं कि इस पौधे को स्पर्श करने वाला वायु भी संजीवनी का काम करता है. यहां के वाशिंदे बेहद ज्ञानी और वैज्ञानिक सोच वाले थे. कृष्ण ने शाकद्वीप से 18 ब्राह्मण परिवार को इलाज के लिए बुलाया. वैद्य ब्राह्मणों ने शर्त यह रखी कि इलाज का कोई शुल्क या फीस नही लेंगे. द्वारिका आकर उन्होंने साम्ब का इलाज किया, साम्ब स्वस्थ हो गए. शाकद्वीप से आये ब्राह्मणों ने इलाज का शुल्क लेने से मना कर दिया तो कृष्ण को लगा कि बिना शुल्क के इलाज कराना गलत है, इसलिए उन्होंने ब्राह्मणों को पान में चुपके से स्वर्ण डलवा दिया. जब ब्राह्मणों को इसका पता चला तो उन्होंने वापस शकद्वीप जाने से इसलिए इनकार कर दिया क्योंकि शुल्क लेकर उन्होंने गुनाह कर दिया था. ऐसा जानने के बाद शाकद्वीप के ब्राह्मण उन्हें जातिबदर कर देते, तब कृष्ण ने मगध में उनका पुनर्वास कराया. उस 18 परिवार के वंशज ही शाकद्वीपीय ब्राह्मण कहे जाते हैं. ये सूर्योपासना करते थे. सूर्य के प्रकाश पर आधारित चिकित्सा करते थे. औरंगाबाद जिले के देव में प्रसिद्ध सूर्य मंदिर की स्थापना इन्होने ही की थी. हम ये कह सकते हैं कि छठ पूजा का प्रारंभ इन्होने ही किया था और आज छठ पूजा का जो स्वरूप है ये उसी समय से चला आ रहा है. दरअसल छठ पर्व इनके ही द्वारा शुरू किया गया पर्व है. कलियुग या वर्तमान समय में अगर कोई देवता सर्वत्र दृष्यमान और साक्षात लाभकारी है तो वह सूर्य ही हैं.
प्रचलित कथाएं चाहे कितनी भी हों लेकिन सूर्य की पूजा प्राचीन काल से चली आ रही है और समस्त मानव जाति के लिए उर्जा और प्रकाश देने के कारण वे सदैव पूजनीय हैं. आज छठ पूजा का वैश्विक स्वरूप देखने को मिलता है, इसे भारत के अलावा नेपाल, मारीशस और फीजी में तो प्रमुखता से मनाया जाता ही है इस के अलावा पूरी दुनिया में जहां-जहां भी बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग रहते हैं वहां इसे पूरे श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है.









