“अगर अरावली नहीं बची, तो कुछ भी नहीं बचेगा”.. नई परिभाषा को विशेषज्ञों ने बताया ‘A Death Warrant’
सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र की 100-मीटर वाली नई अरावली परिभाषा अपनाने और उसके तहत “सस्टेनेबल माइनिंग” की अनुमति देने पर विशेषज्ञों ने गहरी चिंता जताई है. उनका कहना है कि इससे अरावली के बड़े हिस्से का संरक्षण खत्म हो जाएगा और आने वाले वर्षों में पूरी पर्वतमाला गंभीर खतरे में पड़ सकती है.

NEW DELHI: सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में केंद्र सरकार की परिभाषा स्वीकार करते हुए 100 मीटर से अधिक स्थानीय ऊंचाई वाले क्षेत्र को “अरावली पहाड़ी” और 500 मीटर के दायरे में दो या अधिक ऐसी पहाड़ियों को “अरावली रेंज” माना है. विशेषज्ञों का कहना है कि इतनी संकीर्ण परिभाषा से अरावली के बड़े हिस्से संरक्षण सूची से बाहर हो जाएंगे. इससे खनन को ऐसे क्षेत्रों में भी रास्ता मिल जाएगा जो पहले संवेदनशील माने जाते थे.
“अरावली का 90% हिस्सा खतरे में”
जयपुर में भारत सेवा संस्थान द्वारा आयोजित सेमिनार में वक्ताओं ने चेताया कि अगर यह आदेश बिना सख्त सुरक्षा उपायों के लागू होता है, तो अरावली का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा आने वाले वर्षों में समतल हो सकता है.
मगसेसे पुरस्कार विजेता और ‘वाटरमैन ऑफ इंडिया’ राजेंद्र सिंह ने कहा कि यह फैसला पर्यावरणीय सोच से एक खतरनाक विचलन है.
उनके अनुसार, “अगर यह निर्णय किसी एक व्यक्ति के लाभ के लिए लागू किया गया, तो सिर्फ 7–8 प्रतिशत अरावली ही बच पाएगी.”
जनजातीय समुदायों और स्थानीय जीवन पर असर
एक्टिविस्ट जयेश जोशी ने कहा कि इस विवाद में सबसे पहले चिंता उन जनजातीय समुदायों की होनी चाहिए, जो हजारों वर्षों से अरावली पर निर्भर हैं. खनन के विस्तार से न केवल पहाड़, बल्कि कृषि, वन्यजीवन और अभयारण्यों को भी भारी नुकसान होगा. प्रदीप पूनिया ने चेतावनी दी, “खनन बढ़ा तो न केवल पहाड़, बल्कि खेत, जंगल और अभ्यारण्य सब मिट जाएंगे.”
राजस्थान की अर्थव्यवस्था और वन्यजीवन को बड़ा खतरा
कांग्रेस नेता वैभव गहलोत ने कहा कि अरावली की हालत खराब हुई तो इसका सीधा असर पर्यटन और वन्य संरक्षण पर पड़ेगा. उन्होंने कहा, “अगर हमने अभी कदम नहीं उठाए तो आने वाली पीढ़ियां कभी माफ नहीं करेंगी. झालाना लेपर्ड सफारी, रणथंभौर और सरिस्का का अस्तित्व अरावली पर ही निर्भर है.”
“माउंटेन कंजर्वेशन एक्ट” की मांग
पूर्व महाधिवक्ता जी.एस. बापना ने केंद्र सरकार से वन संरक्षण अधिनियम की तर्ज पर “माउंटेन कंजर्वेशन एक्ट” लाने की मांग की. उन्होंने चेताया, “आज की तकनीक कुछ ही दिनों में पहाड़ों को समतल कर सकती है, इसलिए कड़े कानून की जरूरत है.”
दिल्ली-एनसीआर और उत्तर भारत भी होंगे प्रभावित
यह संकट सिर्फ राजस्थान का नहीं है. सतत संपदा क्लाइमेट फाउंडेशन के संस्थापक हर्जीत सिंह ने कहा कि नई परिभाषा “उस प्राकृतिक ढाल को मिटा देती है जो उत्तर भारत को सांस लेने में मदद करती है और हमारे जलस्रोतों को भरती है.” उनके अनुसार, कागजों में इसे “सस्टेनेबल माइनिंग” कहा गया है, लेकिन जमीन पर यह “डायनामाइट, सड़कें और गहरे गड्ढों” का जाल बन सकता है, जो तेंदुआ गलियारों और दिल्ली-एनसीआर की आखिरी हरित ढाल को नुकसान पहुंचाएगा.
पर्यावरण बचाने के लिए जन आंदोलन की तैयारी
जयपुर सेमिनार में वक्ताओं ने स्पष्ट किया कि वे कानूनी उपायों के साथ-साथ एक जन आंदोलन खड़ा करेंगे, ताकि अरावली पर्वतमाला को बचाया जा सके. नेता प्रतिपक्ष टीका राम जुल्ली ने कहा, “अगर अरावली नहीं बची, तो कुछ भी नहीं बचेगा.”
अरावली पर पर्यावरणविदों की यह चेतावनी इस बात की गवाही है कि आने वाले समय में इस पर्वत श्रृंखला का संरक्षण केवल सरकारों पर नहीं, बल्कि जनता की जागरूकता और दबाव पर भी निर्भर करेगा.









