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Ranchi Desk: CUJ (झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय) के 3 प्रोफेसर की एक टीम बौद्ध मठों के संरक्षण के लिए एक परियोजना का नेतृत्व कर रही है. इस परियोजना का नाम "फील्ड बेस्ड 3डी लेज़र स्कैनर स्ट्रक्चरल (एक्सटीरियर एंड इंटीरियर) मैपिंग एंड मॉनिटरिंग ऑफ बुद्धिस्ट मॉनेस्ट्रीज फॉर कंजरवेशन प्लानिंग इनकॉरपोरेटिंग नेचुरल हजार्डस इन पार्ट्स ऑफ लाहौल-स्पीति लद्दाख, कोल्ड डेजर्ट रीजन ऑफ इंडिया" (Field based 3D Laser Scanner Structural (Exterior and interior) Mapping and Monitoring of Buddhist Monasteries for Conservation Planning Incorporating Natural Hazards in parts of Lahaul-Spiti Ladakh, Cold Desert Region of India) है.
यह परियोजना विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी), भारत सरकार द्वारा विज्ञान एवं विरासत अनुसंधान पहल (साइंस एंड हेरिटेज रिसर्च इनिशिएटिव, एसएचआरआई) के अंतर्गत भू-सूचना विज्ञान विभाग, झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय, रांची को स्वीकृत की गई है. इस डीएसटी-एसएचआरआई की यह पहल लद्दाख क्षेत्र में संवेदनशील विरासत स्थलों के संरक्षण एवं उनके सतत विकास की योजना बनाने की दिशा में एक बड़ा कदम है. यह परियोजना तीन साल चलेगी जिसके अंतर्गत डीएसटी द्वारा रु 1.14 करोड़ दिए गए हैं.
परियोजना के प्रधान शोधकर्ता, प्रो. अरविंद चंद्र पांडे ने बताया कि इस परियोजना का उद्देश्य लिडार (LIDAR) प्रौद्योगिकी और उन्नत 3डी लेजर स्कैनिंग का उपयोग करके बौद्ध मठों के विस्तृत संरचनात्मक मानचित्र (बाहरी और आंतरिक) को बनाना है. उन्होंने आगे कहा कि यह क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के तहत प्राकृतिक खतरों का आकलन करता है. डीएसटी ने केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के लामायुरु मठ और करशा मठ (ज़ांस्कर) में दो स्वचालित मौसम स्टेशन (एडब्ल्यूएस) की स्थापना के लिए वित्त प्रदान किया है. हाल ही में परियोजना के सभी शोधकर्ताओं ने लद्दाख का दौरा किया और जलवायु डेटा प्राप्ति के लिए सुरक्षित स्थान और दृश्य क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए इन मठों के निकट पहला स्वचालित मौसम स्टेशन स्थापित किया.
सीयूजे के भू-सूचना विज्ञान विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ. चंद्रशेखर द्विवेदी, सह-प्रमुख अन्वेषक ने परियोजना के परिणामों पर प्रकाश डाला. उन्होंने कहा कि इससे क्षेत्र में प्राकृतिक खतरों के तहत मानचित्रित मठों के सतत विकास के लिए संरक्षण योजना और संरक्षण प्रयासों को बढ़ावा मिलेगा. यह परियोजना क्षेत्र की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करने में मदद करेगी और इन प्रतिष्ठित मठों और उनके आसपास के भू-पर्यावरण के अनुसार सतत विकास में योगदान देगी.
एक अन्य सह-प्रमुख अन्वेषक, डॉ. कोंचक ताशी, सहायक प्रोफेसर, सुदूर-पूर्व भाषा विभाग, सीयूजे, जो इस क्षेत्र के निवासी भी हैं, ने कहा कि दीर्घकालिक जलवायु डेटा और जलवायु परिवर्तन प्रभाव विश्लेषण के अनुसार, ये दो मठ/क्षेत्र, लद्दाख में बादल फटने के लिए हॉटशॉट क्षेत्रों में आते हैं. ये दोनों मठ लगभग हज़ार साल पुराने और लद्दाख के सबसे पुराने मठों में से हैं, जहाँ बौद्ध धर्मग्रंथ अच्छी तरह से संरक्षित हैं. यही कारण है कि इन मठों को जलवायु परिवर्तन से होने वाली आपदाओं से विशेष सुरक्षा की आवश्यकता है.
डॉ. ताशी ने आगे कहा कि बुद्ध की शिक्षाएं, त्रिपिटक, इन मठों में अच्छी तरह से संरक्षित हैं, जो मूल रूप से संस्कृत और पाली में उपलब्ध हैं और अब मठों में तिब्बती में अनुवादित संस्करण में उपलब्ध हैं. ये सभी लेखन पारंपरिक 'ताड़पत्र' (पत्ते से बना प्राचीन कागज) पर संरक्षित हैं.
झारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर क्षिति भूषण दास ने सीयूजे के शोधकर्ताओं को बधाई दी और भारत के समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और धरोहरों की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए आधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग करने के उनके दृढ़ प्रयासों की सराहना की. शोधकर्ताओं और उनकी टीम का जांस्कर के भिक्षुओं ने गर्मजोशी से स्वागत किया, तथा उन्हें सम्मान और आतिथ्य के प्रतीक पारंपरिक स्कार्फ "खटक" से सम्मानित किया.
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